यह लेख एमिटी लॉ स्कूल, कोलकाता की Oishika Banerji द्वारा लिखा गया है। यह लेख मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 की विस्तृत चर्चा प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
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1947 में भारत के विभाजन ने न केवल भारत को दो स्वतंत्र डोमेन में विभाजित कर दिया, बल्कि देश पर लागू कानूनों को भी पूरी तरह से बदल दिया। 1947 के विभाजन से पहले, विरासत, उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, पारिवारिक संबंध और दहेज के विषय धार्मिक कानूनों के सक्षम मार्गदर्शन के तहत विनियमित किए गए थे जिनकी जड़ें सदियों पुराने रीति-रिवाजों में मौजूद थीं। इस प्रकार के कानूनों को बनाने वाली अंतर्निहित विचारधाराओं के कारण अक्सर ऐसे कानूनों में विभिन्न विधानों द्वारा परिवर्तन किया जाता था। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 को लागू करने के पीछे का कारण मुसलमानों के संबंध में मौजूद पारंपरिक प्रथाओं को मिटाना था। पहले, यह अधिनियम उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में लागू नहीं था क्योंकि उनके पास एनडब्ल्यूएफपी मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1935 के नाम से भिन्न विशेषताओं वाला अपना कानून था। लेकिन अब तक, 1937 का अधिनियम पूरे भारत में लागू है जैसा कि अधिनियम की धारा 1(2) के तहत प्रदान किया गया है। इस लेख का उद्देश्य 1937 के इस अधिनियम का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करना है।
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 केवल पाँच प्रावधानों वाला एक छोटा क़ानून है। प्रत्येक प्रावधान का अपना महत्व होने के कारण, उनमें से प्रत्येक का विश्लेषण प्रासंगिक है। 1937 के अधिनियम की योजना यहां दी गई है:
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 की धारा 2 मुसलमानों के लिए व्यक्तिगत कानून के अनुप्रयोग के बारे में बात करती है। प्रावधान इस प्रकार है, “इसके विपरीत किसी भी रीति-रिवाज या प्रथा के बावजूद, बिना वसीयत के उत्तराधिकार के संबंध में सभी प्रश्नों (कृषि भूमि से संबंधित प्रश्नों को छोड़कर), महिलाओं की विशेष संपत्ति, जिसमें अनुबंध या उपहार या व्यक्तिगत कानून के किसी अन्य प्रावधान के तहत विरासत में मिली या प्राप्त की गई व्यक्तिगत संपत्ति शामिल है, विवाह, तलाक, इला, ज़िहार, लियान, खुला और मुबारत सहित विवाह का विघटन ( डिस्सोलुशन ) , भरण-पोषण, मेहर, संरक्षकता उपहार, ट्रस्ट और ट्रस्ट संपत्तियां, और वक्फ (दान और धर्मार्थ ( चैरिटेबल ) संस्थानों और धर्मार्थ और धार्मिक बंदोबस्ती (एंडोमेंट ) के अलावा तो ऐसे मामलों में निर्णय का नियम जहां पक्ष मुस्लिम हैं, मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) होगा।” इस प्रकार यह प्रावधान अपनी छत्रछाया में दस विषय-वस्तुओं को शामिल करता है जो हैं:
इस प्रावधान की व्याख्या करने के लिए, इस धारा में मौजूद दो आवश्यक वाक्यांशों पर प्रकाश डाला जाना आवश्यक है, जो हैं:
ये दोनों वाक्यांश एक-दूसरे के पूरक ( कॉम्प्लिमेंटरी) हैं, और एक दूसरे की अनुपस्थिति में अपना अर्थ खो देता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस कानून द्वारा प्रचलित प्रथा और देश के कानून के बीच एक सामंजस्यपूर्ण निर्माण को अपनाया गया है ताकि इन दोनों को आवश्यक महत्व प्रदान किया जा सके। इस प्रावधान के उद्देश्य पर विचार करने से पहले अधिनियम में ऐसी धारा के अस्तित्व के पीछे का कारण बताना आवश्यक है। जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है, इस अधिनियम का अंतर्निहित सिद्धांत भेदभावपूर्ण कानूनों में वृद्धि से बचने के लिए विधायी अधिनियमों के माध्यम से धार्मिक और प्रथागत कानूनों की शासकीय भूमिका को खत्म करना है। इस प्रकार मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 की शुरूआत के साथ, ऐसे लक्ष्यों को प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। धारा 2 अधिनियम के निर्माण के पीछे इस कारण को शामिल करती है जिससे मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) को लागू करना अनिवार्य हो जाता है। इस प्रकार यह अनिवार्य प्रकृति भारतीय अदालतों को इस प्रावधान में प्रदान किए गए विषय के मामले में विवाद उत्पन्न होने पर केवल मुस्लिम कानून का प्रशासन करने के लिए बाध्य करेगी। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि धारा 2 गोद लेने, विरासत और वसीयत के बारे में बात नहीं करती है। इसलिए, यह अदालतों को ऐसे मामलों में मुस्लिम कानून लागू करने के लिए बाध्य नहीं करता है।
लेकिन, यह प्रावधान अपने नुकसान के साथ आता है जो प्रावधान में ही शामिल है। धारा 2 स्पष्ट रूप से कृषि भूमि के डोमेन को इसके दायरे से और पूरे अधिनियम के दायरे से बाहर करती है, जिससे विरासत के रीति-रिवाजों को मजबूत किया जाता है, जो महिलाओं को विरासत में मिली कृषि भूमि के हकदार होने से स्पष्ट रूप से बाहर रखता है और इसलिए, जैसा कि इस्लामी कानून के तहत प्रदान किया गया था महिलाएं कृषि पर अपने वैध हिस्से से वंचित रहती हैं। जबकि पुरुष उत्तराधिकारी अपने विरासत वाले कृषि भूमि के हिस्से का आनंद लेते रहे, महिला उत्तराधिकारी छाया में रहीं। कृषि भूमि को अधिनियम के दायरे से बाहर करना अधिनियम को अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में बाधा डालता है। अधिनियम का उद्देश्य निरस्त होने के साथ, रीति-रिवाजों को विधायी अधिनियमों से प्रतिस्थापित करने में कोई भूमिका नहीं रह गई है।
अधिनियम की धारा 2 की तरह ही धारा 3 भी महिलाओं को कृषि भूमि से लाभ प्राप्त करने के संबंध में घोषणा करने से स्पष्ट रूप से बाहर रखती है। प्रावधान इस प्रकार है,
निर्धारित प्रपत्र में एक घोषणा करेगा और निर्धारित प्राधिकारी के समक्ष दायर करेगा कि वह [इस धारा के प्रावधानों] का लाभ प्राप्त करना चाहता है, और उसके बाद धारा 2 के प्रावधान ऐसे घोषक और उनके सभी अल्पक बच्चों और उनके वंशजों पर लागू होंगे, जैसे कि उसमें सूचीकृत मामलों के अलावा स्वीकृति, वसीयतें और धनराशि भी निर्दिष्ट की गई हों।
2. जहां निर्धारित प्राधिकारी उप-धारा (1) के तहत एक घोषणा को स्वीकार करने से इनकार करता है, ऐसा करने का इच्छुक व्यक्ति ऐसे अधिकारी से अपील कर सकता है जिसे राज्य सरकार, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, इस संबंध में नियुक्त कर सकती है, और ऐसा अधिकारी, यदि वह संतुष्ट है कि अपीलकर्ता घोषणा करने का हकदार है, तो निर्धारित प्राधिकारी को इसे स्वीकार करने का आदेश दे सकता है।
अधिनियम की धारा 3 घोषणा करने की शक्ति के बारे में बात करती है। अब, इस शक्ति का उपयोग करने के लिए, किसी व्यक्ति को इस प्रावधान द्वारा प्रदान किए गए तीन मानदंडों को पूरा करना होगा, जो हैं;
इस प्रावधान में ध्यान देने योग्य बात यह है कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 की धारा 3 के तहत निहित शक्ति का प्रयोग करने के लिए सभी प्रदान किए गए मापदंडों का पालन करना आवश्यक है। जैसा कि हमने चर्चा की है कि कौन शक्ति का लाभ उठा सकता है, इस शक्ति के उपयोग से होने वाले परिणाम को समझना महत्वपूर्ण है। धारा 3 इस अधिनियम की धारा 2 की गतिशीलता सुनिश्चित करने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करती है। धारा में प्रावधान है कि प्रावधान की पूर्वापेक्षाओं का पालन करने के बाद एक व्यक्ति प्रावधान का लाभ प्राप्त करने की अपनी इच्छा की घोषणा कर सकता है जिसके बाद धारा 2 उसके सभी नाबालिग बच्चों और उनके वंशजों के साथ ऐसे लाभ के घोषणाकर्ता पर लागू होगी।
धारा 3 में कुछ ऐसे विषय भी शामिल हैं जिनके बारे में धारा 2 में बात नहीं की गई है। इनमें वसीयत, विरासत और गोद लेना शामिल हैं। ऐसा करने से, प्रावधान अदालतों को ऐसे विषयों में मुस्लिम कानून लागू करने का विवेक प्रदान करता है, यदि कोई मुस्लिम घोषणा करता है कि वह शरीयत अधिनियम, 1937 के प्रावधानों द्वारा शासित होना चाहता है, जैसा कि वह अधिनियम की धारा 2 के तहत बाकी दस विषयों के लिए होगा। ऐसी घोषणा निर्धारित प्राधिकारी के समक्ष एक निर्धारित प्रपत्र में की जानी चाहिए और शरीयत अधिनियम, 1937 की धारा 3(2), और धारा 4 के तहत प्रदान की गई प्रक्रिया द्वारा शासित होगी। चूंकि धारा 3 घोषणा करने की शक्ति प्रदान करती है, एक मुस्लिम को मुस्लिम कानून द्वारा शासित होने के लिए, ऐसी घोषणा के अभाव में, यह प्रावधान अदालतों को धारा 2, और 3 द्वारा विवादित मामले का निर्णय करते समय ऐसे कानून से बाध्य न होने की एक निहित शक्ति प्रदान करती है।
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 की धारा 4 राज्य सरकारों को अधिनियम के प्रावधानों और उद्देश्य के अनुसार नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है। धारा इस प्रकार है,
3. इस धारा के प्रावधानों के तहत बनाए गए नियम आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किए जाएंगे और उसके बाद इस अधिनियम में अधिनियमित होने के समान प्रभावी होंगे।
4. इस अधिनियम के तहत राज्य सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनते ही राज्य विधानमंडल के समक्ष रखा जाएगा।
1937 के अधिनियम की धारा 3 के साथ यह प्रावधान एक मुस्लिम द्वारा घोषणा की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है जैसा कि धारा 3 (1) के तहत प्रदान किया गया है। घोषणा पत्र दाखिल करने के लिए निर्धारित प्राधिकारी और ऐसे प्राधिकारी के समक्ष जमा किए जाने वाले शुल्क का निर्णय राज्य सरकारों द्वारा किया जाना चाहिए। ध्यान देने वाली बात यह है कि 1937 का अधिनियम केंद्रीय कानून है और इसकी घोषणा के समय इसे विशेष रूप से राज्यों के लिए नहीं बनाया जा सकता था। इस वजह से, अधिनियम इतना लचीला प्रतीत होता है कि राज्य सरकार की नियम बनाने की शक्ति को उस राज्य के मुसलमानों की जरूरतों के अनुसार शामिल किया जा सकता है, बशर्ते अधिनियम का उद्देश्य किसी भी तरह से विफल नहीं होना चाहिए।
1937 के शरीयत अधिनियम की धारा 6 कुछ क़ानूनों के कुछ प्रावधानों को निरस्त करने की बात करती है जो 1937 के शरीयत अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत प्रतीत होते हैं। इन अधिनियमों ने शरीयत अधिनियम से पहले मुस्लिम कानून को लागू करने के लिए भारत की अदालतों को अधिकार दिए हैं जिन्हे 1937 में प्रख्यापित किया गया था। ये अधिनियम थे:
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) अधिनियम, 1937 एक केंद्रीय विधायिका अधिनियम होने के कारण राज्य कानून बनाने पर विचार नहीं कर सकता क्योंकि यह इसकी विधायी क्षमता से परे मौजूद है। इसलिए, कृषि भूमि, दान और धर्मार्थ बंदोबस्ती जैसे प्रासंगिक विषय को अकेला छोड़ दिया गया था। इसके तीन निहितार्थ हैं जो निम्नलिखित हैं:
इन तीन मौजूदा खामियों को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि यद्यपि कानून सामाजिक परिवर्तनों के साथ चलता प्रतीत होता है, लेकिन संबंधित बाधाओं के कारण यह दो कदम पीछे चलता है।